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Saturday 26 July 2014

संत सूरदास


भक्तशिरोमणि सूरदास (१४७८-१५८३ ई.) ने हिन्दी में कृष्ण-प्रेम की जो धारा बहाई, वह अनुपम है। कृष्ण के जीवन के मनोरम रूपों की जैसी हृदयहारी छवियाँ सूर के पदों में देखने को मिलती हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। इनके काव्य में न्यूनाधिक सभी रसों का समावेश हुआ है परन्तु वात्सल्य और श्रृंगार का जैसा विशद, वैविध्यपूर्ण और सरस चित्रण हुआ है, वह अद्वितीय है। सूर से पूर्ववर्ती कवि कबीर का निर्गुण ब्रह्म सामान्य जनता का ध्यान आकर्षित करने में प्राय: असमर्थ था, ऐसे समय में सूर ने श्रीकृष्ण की मधुर छवियों को प्रस्तुत करके जन-मन में माधुर्य का संचार कर धर्म के प्रति आस्था पैदा की।
सूर के 'सूरसागर', 'सूर सारावली', 'साहित्य लहरी' ग्रन्थों में 'सूरसागर' के पद ही जनता में सर्वाधिक प्रचलित हैं। कहा जाता है, 'सूरसागर' सवा लाख पदों का था, परन्तु इस समय पाँच हज़ार पद ही उपलब्ध हैं। इन पाँच हज़ार पदों से जो माधुर्य और रस काव्य-रसिकों को मिला है, उसी के आधार पर सूर को 'हिन्दी साहित्याकाश का सूर्य' कहकर समादृत किया गया है। सूर में भावों की सहजता, भाषा की मिठास और छन्दों की संगीतात्मकता की त्रिवेणी लहराती है जो सहृदयों को आनन्द-सिक्त कर देती है।

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